२५६१ वां बुद्ध जयन्ती
भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति (बुद्धत्व या संबोधी) और महापरिनिर्वाण ये
तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। ऐसा किसी अन्य महापुरुष
के साथ आज तक नही हुआ है। अपने मानवतावादी एवं विज्ञानवादी बौद्ध धम्म दर्शन से
भगवान बुद्ध दुनिया के सबसे महान महापुरुष है। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की
प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को
मानने वाले विश्व में १८० करोड़ से अधिक लोग इस
दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के
नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार
भारत, चीन, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, जापान, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया, पाकिस्तान तथा विश्व के कई देशों में मनाया जाता है। नेपाल
के लुम्बिनीमे विशेष रुप से यह उत्सव मनाया जाता है ।
बुद्ध के ही बिहार स्थित बोधगया नामक स्थान हिन्दू व बौद्ध
धर्मावलंबियों के पवित्र तीर्थ स्थान हैं। गृहत्याग के पश्चात सिद्धार्थ सत्य की
खोज के लिए सात वर्षों तक वन में भटकते रहे। यहाँ उन्होंने कठोर तप किया और अंततः
वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व ज्ञान की
प्राप्ति हुई। तभी से यह दिन बुद्ध पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है। बुद्ध
पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध की महापरिनिर्वाणस्थली कुशीनगर में स्थित महापरिनिर्वाण
विहार पर एक माह का मेला लगता है। यद्यपि यह तीर्थ गौतम बुद्ध से संबंधित है, लेकिन आस(पास के
क्षेत्र में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा है और यहां के विहारों में
पूजा(अर्चना करने वे बड़ी श्रद्धा के साथ आते हैं। इस विहार का महत्व बुद्ध के
महापरिनिर्वाण से है। इस मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफाओं से प्रेरित है।
श्रीलंका व अन्य दक्षिण(पूर्व एशियाई देशों में इस दिन को ’वेसाक’ उत्सव के रूप में मनाते हैं जो ’वैशाख’ शब्द का अपभ्रंश है। इस दिन बौद्ध अनुयायी घरों में दीपक
जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाते हैं। विश्व भर से बौद्ध धर्म के अनुयायी
बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं। इस दिन बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ किया
जाता है। विहारों व घरों में बुद्ध की मूर्ति पर फल(फूल चढ़ाते हैं और दीपक जलाकर
पूजा करते हैं। बोधिवृक्ष की भी पूजा की जाती है। उसकी शाखाओं को हार व रंगीन
पताकाओं से सजाते हैं। वृक्ष के आसपास दीपक जलाकर इसकी जड़ों में दूध व सुगंधित
पानी डाला जाता है। इस पूर्णिमा के दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति
होती है। पिंजरों से पक्षियककं को मुक्त करते हैं व गरीबों को भोजन व वस्त्र दान
किए जाते हैं। दिल्ली स्थित बुद्ध संग्रहालय में इस दिन बुद्ध की अस्थियों को
बाहर प्रदर्शित किया जाता है, जिससे कि बौद्ध धर्मावलंबी वहाँ आकर प्रार्थना कर सकें।
इसी अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद नेपाल ने देश भर अलग–अलग कार्यक्रम आयोजना कर
मनाया ।
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२५६१ वां बुद्ध जयन्ती

मानने वाले विश्व में १८० करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार भारत, चीन, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, जापान, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया, पाकिस्तान तथा विश्व के कई देशों में मनाया जाता है। नेपाल के लुम्बिनीमे विशेष रुप से यह उत्सव मनाया जाता है ।
बुद्ध के ही बिहार स्थित बोधगया नामक स्थान हिन्दू व बौद्ध
धर्मावलंबियों के पवित्र तीर्थ स्थान हैं। गृहत्याग के पश्चात सिद्धार्थ सत्य की
खोज के लिए सात वर्षों तक वन में भटकते रहे। यहाँ उन्होंने कठोर तप किया और अंततः
वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व ज्ञान की
प्राप्ति हुई। तभी से यह दिन बुद्ध पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है। बुद्ध
पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध की महापरिनिर्वाणस्थली कुशीनगर में स्थित महापरिनिर्वाण
विहार पर एक माह का मेला लगता है। यद्यपि यह तीर्थ गौतम बुद्ध से संबंधित है, लेकिन आस(पास के
क्षेत्र में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा है और यहां के विहारों में
पूजा(अर्चना करने वे बड़ी श्रद्धा के साथ आते हैं। इस विहार का महत्व बुद्ध के
महापरिनिर्वाण से है। इस मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफाओं से प्रेरित है।
श्रीलंका व अन्य दक्षिण(पूर्व एशियाई देशों में इस दिन को ’वेसाक’ उत्सव के रूप में मनाते हैं जो ’वैशाख’ शब्द का अपभ्रंश है। इस दिन बौद्ध अनुयायी घरों में दीपक
जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाते हैं। विश्व भर से बौद्ध धर्म के अनुयायी
बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं। इस दिन बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ किया
जाता है। विहारों व घरों में बुद्ध की मूर्ति पर फल(फूल चढ़ाते हैं और दीपक जलाकर
पूजा करते हैं। बोधिवृक्ष की भी पूजा की जाती है। उसकी शाखाओं को हार व रंगीन
पताकाओं से सजाते हैं। वृक्ष के आसपास दीपक जलाकर इसकी जड़ों में दूध व सुगंधित
पानी डाला जाता है। इस पूर्णिमा के दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति
होती है। पिंजरों से पक्षियककं को मुक्त करते हैं व गरीबों को भोजन व वस्त्र दान
किए जाते हैं। दिल्ली स्थित बुद्ध संग्रहालय में इस दिन बुद्ध की अस्थियों को
बाहर प्रदर्शित किया जाता है, जिससे कि बौद्ध धर्मावलंबी वहाँ आकर प्रार्थना कर सकें।
इसी अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद नेपाल ने देश भर अलग–अलग कार्यक्रम आयोजना कर
मनाया ।
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आज के ब्रज को बनाने में वल्लभाचार्य जी की भूमिका रही है

श्री वल्लभाचार्यजी
वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को वल्लभाचार्य जयंती मनाई जाती है। वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस मार्ग पर चलने वालों के लिए वल्लभ संप्रदाय की आधारशिला रखी। पुष्टिमार्ग शुद्धाद्वैत दर्शन पर आधारित है। इस मार्ग पर चलने वाले भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करते।
आराध्य के प्रति उनका पूर्ण समर्पण होता है। भक्त तन, मन और अपना सर्वस्व भगवान को सौंप देता है। भागवत पुराण के अनुसार भगवान का अनुग्रह पोषण या पुष्टि है। वल्लभाचार्य ने प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मा का अंश माना है। उनके अनुसार परमात्मा ही जीव आत्मा के रूप में संसार में छिटके हैं। इसी आधार पर किसी भी जीव को कष्ट या प्रताड़ना देना ठीक नहीं। वल्लभाचार्य के मार्ग पर चलने वालों नही वल्लभ संप्रदाय की नींव रखी।
भारतीय दर्शन से रूबरू होने के लिए वैशाख के महीने का विशेष महत्व है। इसकी वजह है कि आदि शंकराचार्य, वल्लभाचार्य और रामानुजाचार्य की जयंती इसी माह में आती है। तीनों आचार्यों के बीच सदियों का फर्क है, लेकिन अद्वैत उन्हें एक साथ बांधता है। भारत में मान्यता रही है कि परमात्मा और आत्मा के बीच कोई भेद यानी द्वैत नहीं है। इस अद्वैत दर्शन पूरे भारतवर्ष के सामने रखने की शुरुआत आदि शंकराचार्य से होती है। उन्होंने अपने अद्वैत से देश को जोड़ने की कोशिश की।
विष्णु और शिव के भेद को पाटने का प्रयास किया। उनके बाद आने वाले रामानुज ने राम भक्ति को केंद्र में रखा। वल्लभाचार्य ने कृष्णभक्ति को। रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य दोनों ही वैष्णव संत अद्वैत से अलग सोच ही नहीं पाते। रामानुज का अद्वैत विशिष्ट हो जाता है। वल्लाभाचार्य का शुद्ध।
लेकिन अद्वैत पर कोई समझौता नहीं है। शंकराचार्य अलग-अलग देवताओं की बात कर रहे थे। अगर भारत में राम और कृष्ण की भक्ति की धारा बहती है तो उसका श्रेय रामानुज और वल्लभाचार्य को है। वल्लभाचार्य जी ने 'श्रीकृष्ण: शरणं ममं' मंत्र दिया। यही नहीं आज के ब्रज को बनाने में वल्लभाचार्य जी की भूमिका रही है।
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श्री वल्लभाचार्यजी |
वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को वल्लभाचार्य जयंती मनाई जाती है। वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस मार्ग पर चलने वालों के लिए वल्लभ संप्रदाय की आधारशिला रखी। पुष्टिमार्ग शुद्धाद्वैत दर्शन पर आधारित है। इस मार्ग पर चलने वाले भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करते।
आराध्य के प्रति उनका पूर्ण समर्पण होता है। भक्त तन, मन और अपना सर्वस्व भगवान को सौंप देता है। भागवत पुराण के अनुसार भगवान का अनुग्रह पोषण या पुष्टि है। वल्लभाचार्य ने प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मा का अंश माना है। उनके अनुसार परमात्मा ही जीव आत्मा के रूप में संसार में छिटके हैं। इसी आधार पर किसी भी जीव को कष्ट या प्रताड़ना देना ठीक नहीं। वल्लभाचार्य के मार्ग पर चलने वालों नही वल्लभ संप्रदाय की नींव रखी।
भारतीय दर्शन से रूबरू होने के लिए वैशाख के महीने का विशेष महत्व है। इसकी वजह है कि आदि शंकराचार्य, वल्लभाचार्य और रामानुजाचार्य की जयंती इसी माह में आती है। तीनों आचार्यों के बीच सदियों का फर्क है, लेकिन अद्वैत उन्हें एक साथ बांधता है। भारत में मान्यता रही है कि परमात्मा और आत्मा के बीच कोई भेद यानी द्वैत नहीं है। इस अद्वैत दर्शन पूरे भारतवर्ष के सामने रखने की शुरुआत आदि शंकराचार्य से होती है। उन्होंने अपने अद्वैत से देश को जोड़ने की कोशिश की।
विष्णु और शिव के भेद को पाटने का प्रयास किया। उनके बाद आने वाले रामानुज ने राम भक्ति को केंद्र में रखा। वल्लभाचार्य ने कृष्णभक्ति को। रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य दोनों ही वैष्णव संत अद्वैत से अलग सोच ही नहीं पाते। रामानुज का अद्वैत विशिष्ट हो जाता है। वल्लाभाचार्य का शुद्ध।
लेकिन अद्वैत पर कोई समझौता नहीं है। शंकराचार्य अलग-अलग देवताओं की बात कर रहे थे। अगर भारत में राम और कृष्ण की भक्ति की धारा बहती है तो उसका श्रेय रामानुज और वल्लभाचार्य को है। वल्लभाचार्य जी ने 'श्रीकृष्ण: शरणं ममं' मंत्र दिया। यही नहीं आज के ब्रज को बनाने में वल्लभाचार्य जी की भूमिका रही है।